दादा कोंडके : एक धरतीपुत्र मेरी नजर से…

दादा कोंडके – यह नाम आते ही हमारे सामने छवि उभरती है द्विअर्थी संवादों वाली फ़िल्में बनाने वाले, एक बेहद साधारण से चेहरे मोहरे वाले, नाडा़ लटकती हुई ढीली-ढाली चड्डीनुमा पैंट पहनने वाले, अस्पष्ट सी आवाज में संवाद बोलने वाले एक शख्स की । दादा कोंडके के नाम पर अक्सर हमारे यहाँ का तथाकथित उच्च वर्ग समीक्षक नाक-भौंह सिकोड़ता है, हमेशा दादा को एक दोयम दर्जे का, सिर्फ़ द्विअर्थी और अश्लील संवादों के सहारे अपनी फ़िल्में बनाने वाले के रूप में उनकी व्याख्या की जाती है । यह सुविधाभोगी वर्ग आसानी से भूल जाता है कि मल्टीप्लेक्स के बाहर भी जनता रहती है और उसे भी मनोरंजन चाहिये होता है, उसी वर्ग के लिये फ़िल्में बनाकर दादा का नाम लगातार नौ सिल्वर जुबली फ़िल्में बनाने के लिये “गिनीज बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स” में शामिल हुआ है (जबकि राजकपूर, यश चोपडा़ और सुभाष घई की भारी-भरकम बजट और अनाप-शनाप प्रचार पाने वाली फ़िल्में कई बार टिकट खिडकी पर दम तोड़ चुकी हैं)। हिन्दी फ़िल्मों के कलाकार, निर्देशक और यहाँ तक कि फ़िल्म समीक्षक भी एक विशेष प्रकार के घमंड में रहते हैं । उन्हें लगता है कि कुछ चुनिंदा हिन्दी फ़िल्मों में काम करके, करोडों रुपये कमाकर उन्होंने कोई बहुत बडा तीर मार लिया हो या “कला” की बहुत सेवा कर दी हो । जबकि हकीकत यह है कि रजनीकांत की “फ़ैन फ़ॉलोइंग” के आगे अमिताभ बच्चन कहीं नहीं ठहरते, यहाँ तक कि भोजपुरी में भी रवि किशन का जलवा शाहरुख से कहीं ज्यादा है । मराठी भाषा में तो नाटकों की इतनी समृद्ध परम्परा है कि उसके कथ्य, प्रस्तुतीकरण और अभिनय (और सबसे बढकर, एक बडे़ दर्शक वर्ग) के आगे हिन्दी के नाटक कहीं नहीं ठहरते, एक मराठी कलाकार प्रशान्त दामले का नाम रिकॉर्ड बुक्स में इसलिये है कि उन्होंने एक ही दिन में अलग-अलग नाटकों के पाँच शो किये, उन्होंने अब तक तेईस वर्ष में लगभग आठ हजार नाटकों के शो किये, लेकिन फ़िर भी ना जाने क्यों क्षेत्रीय भाषा के कलाकारों को हिन्दी का एक वर्ग जरा हेय दृष्टि से देखता है । दादा कोंडके ने कुछ फ़िल्में हिन्दी में भी बनाईं और वे हिट भी हुईं, लेकिन आरोप लगाने वाले सदा यही राग अलापते रहे कि दादा अश्लील और द्विअर्थी संवाद रखते हैं, इस कारण उनकी फ़िल्में चलती हैं । लेकिन ये आरोप लगाने वाले महेश भट्ट और उनकी टीम को भूल जाते हैं, जो हीरोईन को अर्धनग्न दिखाने के बावजूद फ़िल्म हिट नहीं करवा पाते । खैर.. इस लेख का उद्देश्य है जनता के दिमाग में दादा कोंडके को लेकर बनी छवि को बदलना ।

जन्माष्टमी को मुम्बई के लालबाग इलाके में एक साधारण से परिवार में पैदा हुए दादा कोंडके को बचपन में लोग कृष्णा कहकर बुलाते थे । परिवेश के कारण उनका बचपन गलियों और छोटे-छोटे झगडों में बीता, खुद दादा के शब्दों में – “मेरे बचपन में सभी मुझसे डरते थे, क्योंकि मैं मारपीट करने से नहीं हिचकता था, हमारे मोहल्ले की किसी लड़की को छेडा़ कि समझो उसपर सोडावाटर की बोतलों, ईंटों और पत्थरों से हमला हो जाता था” । बचपन से ही उनमें संगीत की प्रतिभा थी, इसीलिये जब वे एक स्थानीय बैंड पार्टी में शामिल हुए तो किसी को आश्चर्य नहीं हुआ, और इस कारण पहले लोग उन्हें बैंडवाले दादा कहा करते थे । उन्हें नाटकों में पहला मौका दिया वसंत सबनीस ने अपने नाटक “विच्छा माझी पुरी करा” (मेरी इच्छा पूरी करो) । अपने गजब के कॉमेडी सेंस और संवाद अदायगी के कारण दादा कोंडके और वह नाटक बेहद हिट हुआ, उस नाटक के पन्द्रह सौ से अधिक शो में दादा ने काम किया । मराठी फ़िल्मों के पितामह तुल्य श्री भालजी पेंढारकर ने दादा को पहली बार “तांबडी माती” (लाल मिट्टी) फ़िल्म मे काम दिया, फ़िर उसके बाद आई फ़िल्म “सोंगाड्या” (बहुरूपिया जोकर) ने उन्हें प्रसिद्धि के शिखर पर पहुँचा दिया, और उसके बाद तो उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा । एक के बाद एक हिट और सुपरहिट की झडी लगा दी दादा ने । एक समय साठ रुपये महीने पर “अपना बाजार” में पैकिंग करने वाले इस गांवठी व्यक्ति को मराठी जनता ने भरपूर प्यार और पैसा दिया, चाल के एक मामूली से कमरे से मुम्बई के शिवाजी पार्क जैसे पॉश इलाके में एक अपार्टमेंट का मालिक और करोड़पति बनाया, वही शिवाजी पार्क जहाँ सचिन और गावस्कर खेलते-खेलते बच्चे से बडे़ हुए । दादा की पृष्ठभूमि मराठी “तमाशा” और नाटकों की थी इसलिये अपनी फ़िल्मों में भी उन्होंने आम आदमी से जुडे मुद्दों और उसके मनोरंजन का पूरा खयाल रखा । वे हमेशा कहते थे कि “मेरी फ़िल्में मिल मजदूरों, किसानों और सडक के आदमी के लिये हैं, क्योंकि उन्हें भी मनोरंजन का पूरा हक है । मेरी फ़िल्में उच्च वर्ग के लोगों के लिये नहीं हैं, ये तथाकथित उच्च वर्ग के लोग मेरी फ़िल्म यदि अच्छी भी होगी तो एक बार ही देखेंगे, लेकिन एक श्रमिक मेरी फ़िल्म तीन-तीन बार देखेगा और उसे हमेशा मजा आयेगा…(ख्यात अभिनेता और निर्देशक सचिन ने उनके नाटक “विच्छा माझी पुरी करा” अठ्ठाईस बार और “सोंगाड्या” फ़िल्म दस बार देखी) मेरी फ़िल्में “मास” के लिये हैं, “क्लास” के लिये नहीं”। जो व्यक्ति अपनी सीमायें वक्त रहते जान जाता है वही सफ़ल भी हो जाता है, दादा को अपनी शक्लो-सूरत की सीमाओं का ज्ञान था इसलिये कभी भी उन्होंने फ़िल्मों में “शिवाजी” का रोल करने का दुस्साहस नहीं किया, हाँ.. अपने अन्तिम दिनों में वे एक गंभीर फ़िल्म पर काम कर रहे थे, वे शांताराम बापू की “दो आँखे बारह हाथ” से बहुत प्रभावित थे और वैसी ही फ़िल्म बनाना चाहते थे, लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था । वे हमेशा जमीन से जुडे़ अभिनेता रहे… दोस्तों को बच्चों की शादी के लिये पैसे की मदद करना, लोगों के आग्रह पर उनके घर जाकर फ़ोटो खिंचवाना, मुफ़्त में उदघाटन करना तो उन्होंने कई बार किया । जब वे सुपर स्टार बन गये थे तब भी वे अपने पुराने बैंड वाले साथियों को नहीं भूले, जब भी समय मिलता वे उनसे मिलने जरूर जाते और उनके साथ ही दरी पर बैठते, जबकि वे लोग कहते ही रहते कि दादा अब आप बडे़ आदमी बन गये हो कम से कम कुर्सी पर तो बैठो…उनके सेक्रेटरी और स्टाफ़ के सदस्य अक्सर उनसे कहते कि दादा आपको फ़िल्म के सेट पर या आऊटडोर में गाँवों में किसी से पान नहीं लेना चाहिये, हो सकता है उसमें जहर मिला हो… लेकिन दादा हमेशा कहते थे कि जिस दिन मैं स्टार जैसा बर्ताव करूँगा तो मैं खुद से ही निगाह नहीं मिला सकूँगा और ये समझूँगा कि क्या मैने अपने बचपन के दिन भुला दिये ? नहीं.. मैं आम आदमी का हूँ और उसी का रहूँगा…। लगभग बीस वर्षों तक वे मराठी फ़िल्मों के एकछत्र राजा रहे, लेकिन हिन्दी फ़िल्मों में उन्हें उस तरह की सफ़लता नहीं मिली । उन्हें हिन्दी फ़िल्म इंडस्ट्री का मिजाज कभी समझ नहीं आया, वे अक्सर मजाक में कहा करते थे कि हिन्दी फ़िल्मों के कलाकार “चरण सिंह” हैं – “वे पल भर में आपके चरण पकड़ते हैं और कुछ दिन बाद ही चरण खींचने भी लगते हैं”, “हिन्दी फ़िल्मों की हीरोईने कोई काम-धाम ना होने पर भी हमेशा कहती हैं कि मैं ३६ फ़िल्मों में काम कर रही हूँ..” । अस्सी के मध्य दशक में जब शिवसेना का जनाधार उफ़ान पर था तब बालासाहेब ठाकरे के साथ दादा कोंडके सर्वाधिक भीड़खेंचू नेता थे । दादा की पहली सुपरहिट फ़िल्म “सोंगाड्या” के प्रदर्शन के दौरान जबकि दादा ने कोहिनूर थियेटर अग्रिम राशि देकर बुक कर लिया था, बावजूद इसके थियेटर मालिक देव आनन्द की फ़िल्म “तीन देवियाँ” प्रदर्शित करने पर अड़ गया था, तब बालासाहेब ठाकरे ने अपने “प्रभाव” से दादा कोंडके की फ़िल्म उसी थियेटर में प्रदर्शित करवाई, उस दिन से बाल ठाकरे और दादा अभिन्न मित्र बन गये और मित्रता भी ऐसी कि दादा के पार्थिव शरीर पर बाल ठाकरे ने सिर्फ़ हार नहीं चढाये बल्कि उनके पैरों पर सिर भी रखा । मजे की बात यह है कि बाल ठाकरे और दादा कोंडके दोनो का कैरियर लगभग साथ-साथ ही शुरु हुआ और अपने शीर्ष पर पहुँचा…(ये और बात है कि जिस कार्टूनिस्ट बाल ठाकरे की तारीफ़ आर.के.लक्ष्मण नें सर्वाधिक प्रतिभाशाली और प्रभावशाली के रूप में की थी, वह राजनीति की भूलभुलैया में उस कला को खो बैठा), लेकिन दादा कोंडके ने कभी अपनी राह नहीं खोई और आम आदमी के लिये फ़िल्में बनाना जारी रखा । दरअसल उनकी कॉमेडी यात्रा का आरम्भ तब हुआ जब एक ही साल के अन्दर उनके कई नजदीक के नाते-रिश्तेदारों की मृत्यु हो गई, दादा कहते थे – मैं इन मौतों से बुरी तरह से हिल गया था, एक साल तक मैने किसी से बात नहीं की, खाने की इच्छा भी नहीं होती थी, मुझे लगता था कि मैं पागल हो जाऊँगा, लेकिन अचानक पता नहीं क्या हुआ मैने मन में ठाना कि अब अपने दुःख भुलाकर मैं लोगों को हँसाऊँगा..और मैने कॉमेडी शुरु कर दी” । दादा कोंडके ने कई लोगों को मौका दिया, जिनमें से प्रमुख हैं मराठी के एक और सुपरस्टार अशोक सराफ़ और संगीतकार राम-लक्ष्मण । दादा की फ़िल्मों की हीरोइन अधिकतर फ़िल्मों में ऊषा चव्हाण ही रहीं, दादा पर फ़िल्माये अधिकतर गाने महेन्द्र कपूर ने गाये और हीरोईन के ऊषा मंगेशकर ने । महेन्द्र कपूर ने पंजाबी होते हुए भी मराठी में दादा के लिये इतने गाने गाये कि एक बार दादा ने मजाक में उनसे पूछ लिया था कि “महेन्द्र जी कहीं अब आप हिन्दी गाना भूल तो नहीं गये” । १४ मार्च १९९८ को अड़सठ वर्ष की आयु में दादा का दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया और मराठी सिनेमा का एक युग समाप्त हुआ…

संक्षेप में कहें तो – दादा कोंडके हों या रजनीकांत (जो आज भी अपने बरसों पुराने ड्रायवर दोस्त से मिलने बंगलोर जाते हैं तो उसी के घर ठहरते हैं) या एनटीआर (दो रुपये किलो चावल वाली सफ़ल योजना उन्हीं की देन थी), ये सभी लोग महान इसलिये बने हैं क्योंकि वे शिखर पर पहुँचने के बावजूद जमीन से जुडे रहे, हमेशा आम आदमी की समस्याओं को लेकर फ़िल्में बनाईं या गरीब तबके के लोगों का शुद्ध मनोरंजन किया । मुझे पूरा विश्वास है कि यदि दादा कोंडके आज विज्ञापन बनाते तो वे ब्रा-पैंटी और कंडोम के विज्ञापन भी इस तरह से बनाते कि जिसे समझना है वह पूरी तरह समझ जाये और जिस उम्र के लायक नहीं है वह बिलकुल भी ना समझ पाये, और तब शायद दादा को द्विअर्थी और अश्लील कहने वाले बगलें झाँकते (अभी वे लोग इसलिये बगलें झाँकते हैं कि टीवी पर दिखाया जा रहा “तमाशा” और तथाकथित “सभ्य विज्ञापन” उन्हें अश्लील नहीं दिखते)। अश्लीलता या सेक्स मानव की आँखों से दिमाग मे होते हुए कमर के नीचे पहुँचता है, यदि दिमाग पर व्यक्ति का नियंत्रण है तो अनावृत्त नारी या अश्लील बातें भी पुरुष को उत्तेजित नहीं कर सकतीं । यह लोगों को तय करना है कि “खुल्लमखुल्ला” अच्छी बात है या “द्विअर्थी” होना… उम्मीद है कि दादा कोंडके की तरफ़ देखने का हिन्दीभाषियों का नजरिया कुछ बदलेगा…

8 Comments

  1. अरुण said,

    July 1, 2007 at 10:31 am

    सुरेश जी आप अपने मकसद मे पुरी तरह कामयाब रहे,आपने तसवीर का दूसरा रुख बहुत अच्छी तरह पेश किया,अब वाकई मे हम दादा कोडके को देखते समय आपका द्र्ष्टीकोण भी जरुर याद करेके.

  2. Sanjeet Tripathi said,

    July 1, 2007 at 10:33 am

    बढ़िया जानकारी दी आपने सुरेश भाई!! दादा कोंडके के बारे में यह सब जानकारी हमें नही थी! उनकी फ़िल्मों के बारे मे सुना या पढ़ा जरुर है पर देखा नही!!

  3. mamta said,

    July 1, 2007 at 2:52 pm

    दादा कोड्के की एक या दो फिल्म जो उन्होने हिंदी मे बनाईं थी हमने देखी है पर उनके बारे मे सिर्फ इतना ही जानते थे की वो मराठी कलाकार है पर आपके इस चिट्ठे से उनके बारे मे बहुत कुछ जानने को मिला ।

  4. Udan Tashtari said,

    July 1, 2007 at 4:37 pm

    हम तो सिर्फ एक फिल्म क माध्यम से ही दादा को जानते थे और आपने इतनी सारी जानकारी दे दी, आभार.

  5. हरिराम said,

    July 2, 2007 at 7:26 am

    उनकी प्रेरणा स्रोत के बारे में भी कुछ जानकारी देने का कष्ट करें।

  6. note pad said,

    July 2, 2007 at 12:30 pm

    उम्मीद है कि दादा कोंडके की तरफ़ देखने का हिन्दीभाषियों का नजरिया कुछ बदलेगा…

    यह अपेक्षा करना ज़्यादा उत्साहवर्द्धक नही होता क्योन्कि दुनिया मे यही सबसे मुश्किल काम है -किसी का नज़रिया बदलना । फिर भी प्रयास होते रहनेचाहिये निरपेक्ष होकर । आपके प्रयास के लिए बधाइ!

  7. note pad said,

    July 2, 2007 at 12:30 pm

    उम्मीद है कि दादा कोंडके की तरफ़ देखने का हिन्दीभाषियों का नजरिया कुछ बदलेगा…

    यह अपेक्षा करना ज़्यादा उत्साहवर्द्धक नही होता क्योन्कि दुनिया मे यही सबसे मुश्किल काम है -किसी का नज़रिया बदलना । फिर भी प्रयास होते रहनेचाहिये निरपेक्ष होकर । आपके प्रयास के लिए बधाइ!

  8. विजय वडनेरे said,

    July 2, 2007 at 12:53 pm

    साधुवाद!
    दादा कोंडके का यह पक्ष दिखाने के लिये.
    काफ़ी अच्छी जानकारी है.


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