Human Body Organ Smuggling
गत कुछ वर्षों मे हमारे भारत में कुछ वीभत्स प्रकार के अपराध सामने आये हैं, जिसमें सबसे प्रमुख है निठारी काण्ड जिसमें अपराधियों ने बच्चों के साथ यौन दुर्व्यवहार करने के बाद उनके अंग (विशेषकर किडनी) निकाल लिये। दूसरा केस डॉ अमित का है जिसे “किडनी किंग(?)” कहा जा रहा है और जिसका नेटवर्क नेपाल तक फ़ैला हुआ है, और जिसके ग्राहकों में कई विशिष्ट व्यक्ति भी शामिल हैं।
सभी को याद होगा कि इंग्लैंड निवासी स्कारलेट की गोवा में हत्या हुई थी, और जब भारतीय पुलिस और शासकीय मशीनरी के हाथों उसकी मिट्टी के चीथड़े-चीथड़े करके उधर भेजा गया था तब पाया गया था कि उसके शरीर के कई महत्वपूर्ण अंग गायब थे और स्कारलेट की माँ ने आरोप लगाया था कि उन्हें भारत में निकाल लिया गया है। अकेले उत्तरप्रदेश से गत पाँच वर्षों में 12,000 से अधिक गुमशुदगी के मामले आये हैं, जिसमें से अधिकतर बच्चे हैं। इस प्रकार की खबरें लगातार आती रहती हैं कि अपराधी तत्व कब्रिस्तानों और श्मशानों में (जहाँ बच्चों को दफ़नाया जाता है) से मानव कंकाल, खोपड़ी और मजबूत हड्डियाँ आदि खोदकर ले जाते हैं जो ऊँची कीमतों में बिकती हैं।
एक और पक्ष देखिये, दिनों-दिन नये-नये मेडिकल कॉलेज खुलते जा रहे हैं, उनके पास विद्यार्थियों को “प्रैक्टिकल” करवाने के लिये पर्याप्त मात्रा में मृत शरीर नहीं हैं, मेडिकल कॉलेज लोगों से “देहदान” के लिये लगातार अपीलें करते रहते हैं, लेकिन इस मामले में जागरूकता अभी नहीं के बराबर है (क्योंकि अभी तो नेत्रदान के लिये ही जागरूकता का अभाव है)। अब भारत में घटी या घट रही इन सब घटनाओं को आपस में जोड़कर एक विशाल चित्र देखिये/सोचिये। क्या आपको नहीं लगता कि भारत में मानव अंगों की चोरी, तस्करी, विक्रय का एक विशाल रैकेट काम कर रहा है? छिटपुट मामले कभी-कभार पकड़ में आते हैं, लेकिन निठारी या डॉ अमित जैसे बड़े केस इक्का-दुक्का ही हैं। जाहिर है कि यह “धंधा” बेहद मुनाफ़े वाला है और मुर्दे शिकायत भी नहीं करते, ऐसे में अपराधियों, दलालों, गंदे दिमाग वाले डॉक्टरों और किडनी, आँखें, लीवर आदि अंगों के विदेशी ग्राहकों का एक खतरनाक गैंग चुपचाप अपना काम जारी रखे हुए है।
कई मामलों में जाँचकर्ताओं ने पाया है कि इस प्रकार के मानव अंगों के मुख्य खरीदार अरब देशों के अमीर शेख, कनाडा, जर्मनी और अमेरिका के बेहद धनी लोग होते हैं। भारत की गरीबी और सस्ते मेडिकल इन्फ़्रास्ट्रक्चर का भरपूर दोहन करके ये लोग किडनी, आँखें, दाँत आदि प्रत्यारोपित करवाते हैं। एक मोटे अनुमान के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष एक लाख किडनी प्रत्यारोपण की आवश्यकता है, जबकि आधिकारिक और कानूनी रूप से सिर्फ़ 5000 किडनियाँ बदली जा रही हैं, जाहिर है कि “माँग और पूर्ति” में भारी अन्तर है और इसका फ़ायदा “स्मगलर” उठाते हैं। (सन्दर्भ)
मजे की बात तो यह है कि आमतौर पर लोग सोचते हैं कि किडनी बदलना और कार का टायर बदलना लगभग एक जैसा ही है। लेकिन ऐसा है नहीं, क्योंकि किडनी लेने वाले और देने वाले का “परफ़ेक्ट मैच” होना बहुत ही मुश्किल होता है तथा ऑपरेशन के बाद दोनों व्यक्तियों की उचित देखभाल और लम्बा इलाज जरूरी होता है। स्मग्लिंग के इन मामलों में “लेनेवाले अमीर” की देखभाल तो बेहतर हो ही जाती है, मारा जाता है बेचारा गरीब देने वाला। जो भी पैसा उसे किडनी बेचकर मिलता है वह उसके अगले पाँच साल की दवाई में ही खर्च हो जाता है (यदि तब तक वह जीवित रहा तो)। “एम्स” के डॉक्टर संदीप गुलेरिया कहते हैं कि भारत में डायलिसिस की सुविधायें अभी भी बहुत कम जगहों पर हैं और बेहद महंगी हैं, इसलिये लोग किडनी बदलवाने का “आसान रास्ता”(?) अपनाते हैं।
इस “गंदे धंधे” की जड़ में जहाँ एक ओर गरीबी और अशिक्षा है, वहीं दूसरी ओर इन मामलों में भारत के लचर कानून भी हैं। कानूनी तौर पर किडनी दान करना भी एक बेहद जटिल प्रक्रिया है, जिसका फ़ायदा “दलाल” किस्म के डॉक्टर उठाते हैं। अब जाकर सरकार इस दिशा में कोई स्पष्ट कानून बनाने के बारे में विचार कर रही है, ताकि अंगदान को आसान बनाया जा सके। चीन में भी मानव अंग खरीदना-बेचना जुर्म माना जाता है, और इसके लिये कड़ी सजा के प्रावधान भी हैं, लेकिन 1984 में चीन सरकार ने संशोधन करके एक कानून पास किया है जिसके अनुसार आजीवन कारावास प्राप्त किसी कैदी, जिसके कोई भी रिश्तेदार मरणोपरांत उसका मृत देह लेने नहीं आयें, के अंग सरकार की अनुमति से निकाले जा सकते हैं और प्रत्यारोपित किये जा सकते हैं। हालांकि धांधली वहाँ भी कम नहीं है, क्योंकि चीन सरकार के अनुसार 2002 में 1060 कैदियों को मौत की सजा सुनाई गई थी, जबकि एमनेस्टी इंटरनेशनल के अनुसार इनकी संख्या 15000 से ऊपर है। इन कैदियों के महत्वपूर्ण अंग सिंगापुर और हांगकांग के अमीर चीनियों को लगाये गये।
ऐसा कहा जाता है कि रूस, भारत, कुछ दक्षिण एशियाई देश और कुछ बेहद गरीब अफ़्रीकी देशों में यह धंधा जोरों पर है। इन देशों में मानव अंगों, किडनी, आँखों के कॉर्निया, लीवर, चमड़ी आदि निकालकर बिचौलियों के जरिये बेचे जाते हैं। हाइवे पर अकेले चलने वाले ड्रायवर, नशे में हुए एक्सीडेंट जिनमें लाश लावारिस घोषित हो जाती है, अकेले रहने वाले बूढ़े जिनकी असामयिक मौत हो जाती है, गरीब, मजबूर और कर्ज से दबे हुए लोग आदि इस माफ़िया के आसान शिकार होते हैं (मुम्बई, गुड़गाँव, चेन्नई चारों तरफ़ इस प्रकार के अपराध पकड़ में आ रहे हैं, हाल ही में उज्जैन में एक किडनी रैकेट पकड़ाया है जो डॉकटरों की मिलीभगत से गरीबों और मजदूरों को किडनी बेचने के लिये फ़ुसलाता था)। “ऑर्डर” पूरा करने के चक्कर में कई बार ये अपराधी अपहरण करने से भी नहीं हिचकते। विभिन्न विश्वविद्यालयों में अध्ययन के लिये शरीर के विभिन्न अंगों माँग बनी रहती है, इसी प्रकार आयरलैण्ड और जर्मनी आदि यूरोपीय देशों में टाँगों की लम्बी और मजबूत हड्डियाँ की फ़ार्मेसी कम्पनियाँ मंगवाती हैं जिन्हें दाँतों की “फ़िलिंग” के काम में लिया जाता है।
ऊपर दिये गये तथ्य निश्चित रूप से एक भयानक दुष्चक्र की ओर इशारा करते हैं… ऐसे में हमें अत्यन्त सावधान रहने की आवश्यकता है, किसी भी अन्जान जगह पर किसी अजनबी पर एकदम विश्वास न करें न ही उसके साथ अधिक समय अकेले रहें, बच्चों को रातों में अकेले सुनसान जगहों पर जाने से हतोत्साहित करें, यदि पार्टी में ज्यादा नशा हो गया हो तो किसी दोस्त को साथ लेकर ही देर रात को घर लौटें…
और इसे बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया हुआ न मानें, क्योंकि धरती पर सबसे खतरनाक प्राणी है “इंसान”, जिससे सभी को सावधान रहना चाहिये…
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संजय तिवारी said,
June 29, 2008 at 2:12 pm
अच्छे ब्लाग लेखन का उदाहरण.
ab inconvenienti said,
June 29, 2008 at 5:26 pm
ब्रिटिश राज ने रजवाड़ों, साधुओं और अपराधी किस्म के लोगों के नेटवर्क को नेस्तनाबूत किया था. जिसे ‘ठगी प्रथा’ के नाम से जाना जाता था. ग़लत न समझें पर इस तरह के रोग ठीक करना केवल विदेशियों के हाथों में ही है, या फ़िर हम काले अंग्रेज गुलामों को किसी और इमरजेंसी की ज़रूरत है, वो भी शायद कम से कम कुछ सदियों के लिए. बड़े बूढ़ेबताते हैं की ‘राज’ के और ‘इमरजेंसी’ के दिनों की बात ही कुछ और थी, न कोई लेटलतीफी न भ्रष्टाचार…….. सब काम सही-साट तुंरत होता था. अब जल्द ही कोई इंदिरा जैसा तानाशाह देश को अकाल मौत से बचाने के लिए चाहिए………. शायद नरेन्द्र मोदी………
संजय बेंगाणी said,
June 30, 2008 at 10:51 am
सही लिखा है. इसी तरह भारत दवाओं की जाँच का केन्द्र भी बनता जा रहा है.
अशोक पाण्डेय said,
June 30, 2008 at 1:52 pm
इस अत्यंत चिंताजनक समस्या को पुरजोर तरीके से रेखांकित करने के लिये धन्यवाद। भ्रष्ट तंत्र में खुद सजग रहकर ही परिस्थिति से मुकाबला किया जा सकता है। आपने सही बात कही है। इंसान को सबसे अधिक खतरा इंसान से ही है, क्योंकि इतना शातिर दिमाग किसी अन्य प्राणी के पास नहीं है।
श्रद्धा जैन said,
July 2, 2008 at 2:17 pm
घिन आती है सोच कर कि ऐसे दानवीय लोगों की जाति मानव जाति में हम भी आते हैं
कितना घिनौना रूप है इंसान का
ये सभी लोग बीमार है इन्हे इलाज़ की ज़रूरत है और इलाज़ सिर्फ़ क़ानून ही कर सकता है
सुरेश जी आपकी पोस्ट पढ़ी आप सच कहते हैं कि इंसान को अगर खतरा है तो बस इंसान से ही