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पिछले दिनों परीक्षाओं में व्यस्त होने के कारण अख़बार ढंग से पढ़ पाना संभव नही हो पता रहा । आज पुराने जनसत्ता के अंको को पलट रहा था तो राज किशोर और के ० विक्रम सिंह के बीच मकबूल फ़िदा हुसैन की विवादित पेंटिग को लेकर चल रही बहस पर नजर टिक गई । महीनोंसे सुप्त पड़े मुद्दे को इस बहस ने एक बार फ़िर सेकुलरों के लिए मसाला तैयार कर दिया है । अब फ़िर तीन -चार महीने तक इस मुद्दे पर कलम घसीटी हो सकती है । मैं तो यही मानता हूँ ऐसे मुद्दों को जितनी कम तूल दी जाए बेहतर होगा । हुसैन की कुछ पेंटिंग्स मैंने भी देखी हैं जिसे के ० विक्रम सिंह , राजेन्द्र यादव , अरुंधती राय आदि सेकुलर लोग कला का उत्कृष्ट नमूना बताते हुए उसकी तुलना खजुराहो की नायाब कला कृतियों से करते हैं । पिछले वर्ष एक मुस्लिम बहुल विश्विद्यालय के समारोह में राजेंद्र यादव ने माँ सरस्वती वाली विवादित पेंटिंग का अर्थ समझाते हुए कहा था – ” पेंटिंग में सरस्वती जो विद्या का प्रतीक हैं उसके साथ एक राक्षस नुमा व्यक्ति को संभोगरत दिखाया है अर्थात सरस्वती यानि विद्या या शिक्षा का सम्भोग आज बाजार कर रहा है । ” और इस तरह उस चित्र की कितनी साफगोई से बचा ले गए राजेंद्र यादव जी । वहीँ पर मैंने उनसे पूछा था -“महोदय क्या यह चित्र संभोगरत होने के बजायकिसी और थीम से नही बनाई जा सकती थी ? जैसा आपने अर्थ स्पष्ट किया उस आधार पर कई तरीके हो सकते थे यह दिखने के लिए मसलन राक्षस माँ सरस्वती यानि शिक्षा की साडी खिंच रहा होता आदि- आदि । और अगर नग्नता हीं कलासौन्दर्य की कसौटी है तो मुम्बईया नीली फिल्मों को जरुर आस्कर मिलना चाहिए ! ” दरअसल ये अकेले इनकी समस्या नही है। आज कलाकार से ज्यादा समीक्षक हो गए हैं जो अनाप शनाप अर्थ निकल कर किसी भी कलाकृति अथवा रचना की व्याख्या कर देते हैं , जबकि व्याख्या का अधिकार को दर्शक का होना चाहिए । कला समीक्षकों को लक्ष्य कर बनाई गई एक शोर्ट फ़िल्म देखी थी ।” फ़िल्म में एक बेहद कंगाल आदमी रहता है जिसकी झोपडी के पास अमीरों के फार्म हॉउस हैं । उन्ही फार्म हाउसों में से एक में रहने वाली एक बेहद खुबसूरत महिला से वो प्रेम करता है । अपनी गरीबी की हालत समझते हुए वो कुछ भी बोलने में संकोच करता है । हर रोज साहस करता है पर कुछ कह नही पाता। औरों से नजरें बचा कर उसे कनखियों से देखना यही उसका कम रहता है । एक दिन वह काफी दुखी था । वो अपनी महबूबा को एक उपहार देकर दिल की बात बताना चाहता है । लेकिन उसके पास देने के लिए कुछ भी नही । अपनी फटेहाली से नाराज और व्यथित होकर वो उपहार की तलाश में जंगल की और चलता है । जंगल में थोडी दूर जाने पर उसे सुखा हुआ मानव मल (विष्ठा ) दिकाई देता है जिसे वो उठा कर ले आता है और सीसे की एक बर्तन में डाल कर उस महिला को दे आता है । महिला उसे अपने टेबल पर सजा कर रख देती है । इन बातो से बेखर महिला समझती है ये कोई नायाब चीज है । शाम को एक पार्टी होती है महिला के घर पर लोग-बाग़ उस चीज को देख कर आकर्षित होते हैं और पूछते हैं क्या है । वो नही बता पति पर कहती है मुझे उस झोपडे में रहने वाले ने उपहार में दी है । अब इन कला पारखियों की दृष्टि तो देखिये मानव के सूखे मल में इन्हे एक उत्कृष्ट कलाकृति नजर आती है । इनका पागलपन इस कदर होता है की उस व्यक्ति को धुंध कर उससे इसी तरह के और उपहारों की मांग की जाती है । तो कोई उस व्यक्ति के साथ हिस्सेदारी में इसका व्यापार करना चाहता है । हालत ये हो जाती है किलोगों को सच्चाई बताने से डरने कि वजह से उस व्यक्ति को ८-१० लोग भाड़े पर रखना पड़ता है जो इस उपहार का उत्पादन कर सकें । “ मेरा ख्याल है पर इस कहानी से के ० विक्रम और राजेंद्र यादव सरीखे व्याख्या करने वाले समीक्षकों की असलियत समझ में आ गई होगी ।
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