वर्ल्ड बैंक से भारत सरकार ने एक बड़ी रकम कर्ज के रूप में उठाने का फैसला किया है । बताया जा रहा है कि यह रकम लगभग ४;२ अरब अमेरिकी डॉलर होगी । आर्थिक मंदी से जूझ रहे बैंक व्यवसाय को राहत पहुँचाने की दिशा में यह कदम इसलिए उठाया गया ताकि बैंक ब्याज दरों में कटौती कर सकें । विश्व बैंक से इतनी बड़ी रकम उधर लेने से यह तो साफ़ है कि भारत की आर्थिक स्थिति कुछ खास अच्छी नहीं है भले ही हमारे उद्योगपतियों को संसार के बड़े धन कुबेरों में गिना जाता हो । निश्चित रूप से मनमोहन की उधारी नीति राष्ट्र को एक बार फिर आर्थिक गुलामी की ओर धकेल देगी जहाँ से राजनैतिक गुलामी शुरू होती हैऔर मानसिक गुलामी का दंश तो हम ६० सालों के पश्चात् भी झेल ही रहे हैं । शायद मनमोहन सरकार में बैठे मंत्रियों की उसी मानसिक गु़लामी की वजह से यह सब हो रहा है । अब सवाल यह उभरता है कि पिछले कार्यकाल में मनमोहन सरकार आर्थिक मंदी के असर को झुठलाने वाले बयान क्यों देती रही ? आर्थिक मंदी , आर्थिक विकास , खुली पूंजी निवेश जैसे जटिल आर्थिक मुद्दे का सच क्या है ? जनता को इस बारे में जानने का हक है या नहीं ? इस देश का दुर्भाग्य है कि हम आत्मनिर्भरता का रास्ता त्यागते चले आ रहे है ? आर्थिक , राजनैतिक , सामाजिक , शैक्षिक हर क्षेत्र में पश्चिम की ओर ताकना कहाँ तक सही है ? अभी कुछ सालो पहले ही विश्व बैंक से अपना सोना छुड़वा कर हम गर्व महसूस कर रहे थे पर इतनी जल्दी २०२० तक संसार का सिरमौर बनने की चाह रखने वाला भारत कर्ज में डूबने की तयारी कर रहा है । आजादी के साथ वर्ष पूरे हो गए है । इतने दिनों तक हम दूसरों की व्यवस्था से अपना घर चलाने की कोशिश करते रहे लेकिन आर्थिक – सामाजिक – प्रशासनिक – शिक्षा -स्वास्थ्य हर मोर्चे पर विफल रहे । हर बार पंचवर्षीय योजना बनाई जाती है । आज तक कितनी पंचवर्षीय योजना पूरी हुई ? दरअसल प्रयोग के तौर पर जो चीजें होनी चाहिए वो हमारे यहाँ योजना के तौर पर लागु कर दे जाती है ॥ हर बार एक नया प्रयोग करते समय हमें पिछली गलतियों का तनिक भी स्मरण नहीं रहता । क्या विकास के वर्तमान मॉडल, जिसमें प्रयोग और योजना का आकर एक ही है , की समीक्षा जरुरी नहीं है ? क्या सालों से पिछड़ती , कर्ज में डुबोती आई इस उधार की व्यवस्था के इतर एक वैकल्पिक व्यवस्था को नहीं खोजा जाना चाहिए ? एक तरफ उधार , उधार , उधार …………… दूसरी तरफ विकास के नारे …………………. कर्ज लेकर विकसित राष्ट्र होने का सपना हम कब तक देखेंगे ? क्या ५ हजार वर्षों से जिस व्यवस्था नीति ने भारत को जीवित ही नहीं रखा बल्कि सोने की चिडियां बना कर रखा उस व्यवस्था में लौटने की नहीं अपितु उसे आधुनिक सन्दर्भों में व्याख्यायित करने की जरुरत नहीं है ?
>लगता है कर्जे में मरेंगे हम सब क्योंकि मनमोहन सरकार …………………………….
June 4, 2009 at 6:17 am (लोकतंत्र (democracy), economy)
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