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जब भारत आर्थिक उपलब्धियों को लेकर उच्च विश्व रैंकिंग प्राप्त करने के लिए तैयार खड़ा है, घोर गरीबी हटाना एवं करोड़ों नागरिकों को जीवन-यापन का समुचित स्तर प्रदान करना उसकी सबसे बड़ी चुनौतियाँ बन रही हैं। निस्संदेह इस सत्य की पहचान करते हुए तथा उसे स्वीकार करते हुए इस तथ्य की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती कि हाल ही के दशकों में बड़ी संख्या में लोगों को गरीबी रेखा से ऊपर उठाने में सफलता मिली है। इक्कीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में भारत की सामाजिक-आर्थिक वास्तविकता का केवल एक निराशाजनक चित्र प्रस्तुत करना उचित नहीं है। वास्तव में, आर्थिक सुधार से कतिपय क्षेत्रों में अपेक्षाकृत अधिक तीव्र गति से वृध्दि के कारण भारत समृध्दि के पथ पर अग्रसर है।
साथ-ही-साथ हमें वर्तमान भारतीय वस्तुस्थिति के नकारात्मक पक्ष की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। हमारी आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा अभी भी गरीबी का शिकार है। समान रूप से अमीर और गरीब के बीच, शहरों तथा गाँवों के बीच तेजी से बढ़ती खाई भी चिंताजनक है। इसके कारण गाँवों को छोड़कर लोग शहरों की ओर भाग रहे हैं, जो प्रक्रिया वर्ष 1990 के दशक में आर्थिक सुधारों के बाद अधिक तीव्र हुई है। विकास की प्रक्रिया में क्षेत्रीय विषमताओं से समस्या और अधिक दुरूह हो गई है, जहाँ उत्तरी और पूर्वी राज्य दक्षिण और पश्चिम के राज्यों से काफी पीछे रह गए हैं।
मानव संसाधन भारत की बहुमूल्य संपदा है। तथापि मानव संसाधन तभी उपयोगी हो सकता है, जब रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार तथा उत्तम प्राकृतिक और सामाजिक परिवेश जैसी बुनियादी जरूरतें सबके लिए पूरी हों। यदि देश में मानव संसाधन का बहुत बड़ा भाग गरीब है तो कोई भी देश समृध्द नहीं हो सकता। मुझे हमेशा इस बात पर आश्चर्य होता है, यदि भारत अपनी एक-तिहाई भली प्रकार से रह रही आबादी के बल पर इतनी उपलब्धि हासिल कर सकता है तो जब सभी मानव संसाधनों का पूरी तरह से उपयोग होगा, तब यह देश कहाँ पहुँच जाएगा? कितनी ऊँचाइयों को छू लेगा?
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