एनडी तिवारी के बहाने दो-तीन प्रमुख मुद्दों पर बहस की दरकार… ND Tiwari, Sex Scandal, Governor of AP

पिछले कुछ दिनों से आंध्र के पूर्व राज्यपाल एनडी तिवारी ने चहुंओर हंगामा मचा रखा है। इसके पक्ष-विपक्ष में कई लेख और मत पढ़ने को मिले, जिसमें अधिकतर में तिवारी के चरित्र पर ही फ़ोकस रहा, किसी ने इसे तुरन्त मान लिया, कुछ लोग सशंकित हैं, जबकि कुछ लोग मानने को ही तैयार नहीं हैं कि तिवारी ऐसा कर सकते हैं। ज्ञानदत्त पाण्डेय जी के ब्लॉग पर विश्वनाथ जी ने बड़े मासूम और भोले-भाले से सवाल उठाये, जबकि विनोद जी ने चीरफ़ाड़ में कांग्रेस की फ़ाड़कर रख दी, वहीं एक तरफ़ डॉ रूपचन्द्र शास्त्री जी उन्हें दागी मानने को ही तैयार नहीं हैं। हालांकि कुछ बिन्दु ऐसे हैं जिनका कोई जवाब अभी तक नहीं मिला है, जैसे –

1) यदि नैतिकता के इतने ही पक्षधर थे तो, एनडी तिवारी ने इस्तीफ़ा इतनी देर से और केन्द्र के हस्तक्षेप के बाद क्यों दिया?

2) नैतिकता का दावा मजबूत करने के लिये इस्तीफ़ा “स्वास्थ्य कारणों” से क्यों दिया, नैतिकता के आधार पर देते?

3) जब रोहित शेखर नामक युवक ने पिता होने का आरोप लगाया था, तब नैतिकता की खातिर खुद ही DNA टेस्ट के लिये आगे कर दिया होता, दूध का दूध पानी का पानी हो जाता?

4) पहले भी ऐसे ही “खास मामलों” में राजनैतिक गलियारों में इनका ही नाम क्यों उछलता रहा है, किसी और नेता का क्यों नहीं?

बहरहाल सवाल तो कई हैं, लेकिन ऐसे माहौल में दो महत्वपूर्ण मुद्दों पर बात छूट गई लगती है, इसलिये उन्हें यहाँ पेश कर रहा हूं…

पहला मुद्दा – क्या अब भी हमें राज्यपाल पद की आवश्यकता है?

पिछले कुछ वर्षों में (जबसे राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारें मजबूत हुईं, तब से) यह देखने में आया है कि राज्यों में राज्यपाल केन्द्र के “जासूसी एजेण्ट” और “हितों के रखवाले” के रूप में भेजे जाते हैं। राज्यपाल अधिकतर उन्हीं “घाघ”, “छंटे हुए”, “शातिर” लोगों को ही बनाया जाता है, जिन्होंने “जवानी” के दिनों में कांग्रेस (यानी गाँधी परिवार) की खूब सेवा की हो, और ईनाम के तौर पर उनका बुढ़ापा सुधारने (यहाँ “मजे मारने” पढ़ा जाये) के लिये राज्यपाल बनाकर भेज दिया जाता है। राज्यपालों को कोई काम-धाम नहीं होता है, इधर-उधर फ़ीते काटना, उदघाटन करना, चांसलर होने के नाते प्रदेश के विश्वविद्यालयों में अपनी नाक घुसेड़ना, प्रधानमंत्री-राष्ट्रपति यदि राज्य के दौरे पर आयें तो उनकी अगवानी करना, विधानसभा सत्र की शुरुआत में राज्य सरकार का ही लिखा हुआ बोरियत भरा भाषण पढ़ना… और सिर्फ़ एक महत्वपूर्ण काम यह कि कौए की तरह यह देखना कि कब राज्य में राजनैतिक संकट खड़ा हो रहा है (या ऐसा कोई संकट खड़ा करने की कोशिश करना), फ़िर पूरे लोकतन्त्र को झूला झुलाते हुए केन्द्र क्या चाहता है उसके अनुसार रिपोर्ट बनाकर देना…। ऐसे कई-कई उदाहरण हम रोमेश भण्डारियों, सिब्ते रजियों, बूटा सिंहों आदि के रूप में देख चुके हैं। तात्पर्य यह कि राज्यपाल नामक “सफ़ेद हाथी” जितना काम करता है उससे कहीं अधिक बोझा राज्य के खजाने (यानी हमारी जेब पर) डाल देता है। जानना चाहता हूं कि क्या राज्यपाल नामक “सफ़ेद हाथी” पालना जरूरी है? एक राजभवन का जितना खर्च होता है, उसमें कम से कम दो राज्य मंत्रालय समाहित किये जा सकते हैं, जो शायद अधिक काम के साबित हों…।

अब आते हैं दूसरे मुद्दे पर…

क्या भारतीय राजनीति में “टेब्लॉयड संस्कृति” का प्रादुर्भाव हो रहा है? यदि हो रहा है तो होना चाहिये अथवा नहीं?

भारत के राजनैतिक और सामाजिक माहौल में अभी ब्रिटेन की “टेब्लॉयड संस्कृति” वाली पत्रकारिता एक नई बात है। जैसा कि सभी जानते हैं, ब्रिटेन के दोपहर में निकलने वाले अद्धे साइज़ के अखबारों को टेब्लॉयड कहा जाता है, जिसमें, किस राजनेता का कहाँ चक्कर चल रहा है, किस राजनेता के किस स्त्री के साथ सम्बन्ध हैं, कौन सा राजनैतिक व्यक्ति कितनी महिलाओं के साथ कहाँ-कहाँ देखा गया, जैसी खबरें ही प्रमुखता से छापी जाती हैं। चूंकि पश्चिमी देशों की संस्कृति(?) में ऐसे सम्बन्धों को लगभग मान्यता प्राप्त है इसलिये लोग भी ऐसे टेब्लॉयडों को पढ़कर चटखारे लेते हैं और भूल जाते हैं।

डॉ शास्त्री, तिवारी जी के प्रति अपनी भक्तिभावना से प्रेरित होकर और विश्वनाथ जी एक सामान्य सभ्य नागरिक की तरह सवाल पूछ रहे हैं, लेकिन सच्चाई कहीं अधिक कटु होती है। जो पत्रकार अथवा जागरूक राजनैतिक कार्यकर्ता सतत इस माहौल के सम्पर्क में रहते हैं, वे जानते हैं कि इन नेताओं के लिये “सर्किट हाउसों”, रेस्ट हाउसों तथा फ़ार्म हाउसों में क्या-क्या और कैसी-कैसी व्यवस्थाएं की जाती रही हैं, की जाती हैं और की जाती रहेंगी… क्योंकि जब सत्ता, धन और शराब तीनों बातें बेखटके, अबाध और असीमित उपलब्ध हो, ऐसे में उस जगह “औरत” उपलब्ध न हो तो आश्चर्य ही होगा। भारतीय मीडिया अभी तक ऐसी खबरों के प्रकाशन अथवा उसे “गढ़ने”(?) में थोड़ा संकोची रहा है, लेकिन यह हिचक धीरे-धीरे टूट रही है… ज़ाहिर है कि इसके पीछे “बदलते समाज” की भी बड़ी भूमिका है, वरना कौन नहीं जानता कि –

1) भारत के एक पूर्व प्रधानमंत्री के कम से कम 3 महिलाओं से खुल्लमखुल्ला सम्बन्ध रहे थे।

2) दक्षिण का एक सन्यासी, जो कि हथियारों का व्यापारी भी था कथित रूप से एक पूर्व प्रधानमंत्री का बेटा कहा जाता है।

3) एक विशेष राज्य के विशेष परिवार के मुख्यमंत्री और उसका बेटे के “घरेलू” सम्बन्ध एक पूर्व प्रधानमंत्री के पूरे परिवार से थे।

4) एक भूतपूर्व प्रधानमंत्री के लाड़ले बेटे की “चाण्डाल चौकड़ी” ने न जाने कितनी महिलाओं को बरबाद (एक प्रसिद्ध अभिनेत्री की माँ को) किया, जबकि कितनी ही महिलाओं को आबाद कर दिया (उनमें से एक वर्तमान केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में भी है)।

5) मध्यप्रदेश की एक आदिवासी महिला नेत्री का राजनैतिक करियर उठाने में भारत के एक पूर्व प्रधानमंत्री का हाथ है, जिनकी एकमात्र योग्यता सुन्दर होना है।

6) एक प्रसिद्ध फ़िल्म अभिनेता की माँ के भी एक पूर्व प्रधानमंत्री से सम्बन्ध काफ़ी चर्चित हैं।

नेताओं अथवा धर्मगुरुओं के प्रति भावुक होकर सोचने की बजाय हमें तर्कपूर्ण दृष्टि से सोचना चाहिये…। एक और छोटा सा उदाहरण – हाल ही में अपनी हरकतों की वजह से कुख्यात हुए एक “सिन्धी” धर्मगुरु तथा मुम्बई के एक प्रसिद्ध “सिन्धी” बिल्डर के बीच यदि धन के लेन-देन और बेनामी सौदों की ईमानदारी से जाँच कर ली जाये तो कई राज़ खुल जायेंगे… एक और प्रवचनकार द्वारा आयकर छिपाने के मामले खुल रहे हैं।

(तात्पर्य यह शास्त्री जी अथवा विश्वनाथ जी, कि भारतीय राजनीति में ऐसे कई-कई उदाहरण मौजूद हैं, हालांकि ऊपर दिये गये उदाहरणों में मैं नामों का उल्लेख नहीं कर सकता, लेकिन जो लोग राजनैतिक रूप से “जागरूक” हैं, वे जानते हैं कि ये किरदार कौन हैं, और ऐसी बातें अक्सर सच ही होती हैं और बातें भी हवा में से पैदा नहीं होती, कहीं न कहीं धुँआ अवश्य मौजूद होता है) चूंकि अब मामले खुल रहे हैं, समाज छिन्न-भिन्न हो रहा है, विश्वास टूट रहे हैं… तो लोग आश्चर्य कर रहे हैं, तब सवाल उठना स्वाभाविक है कि –

अ) क्या पश्चिमी प्रेस का प्रभाव भारतीय मीडिया पर भी पड़ा है?

ब) जब हम हर बात में पश्चिम की नकल करने पर उतारू हैं तो नेताओं के ऐसे यौनिक स्टिंग ऑपरेशन भी होने चाहिये (अब जनता ने भ्रष्टाचार को तो स्वीकार कर ही लिया है, इसे भी स्वीकार कर लिया जायेगा), धीरे-धीरे ऐसे नेताओं को नंगा करने में क्या बुराई है?

स) भारतीय संस्कृति में ऐसी खबरें हेडलाइन्स के रूप में छपेंगी तो समाज पर क्या “रिएक्शन” होगा?

ऐसे उप-सवालों का मूल सवाल यही है कि “ऐसे स्टिंग ऑपरेशन और नेताओं के चरित्र के सम्बन्ध में मीडिया को सबूत जुटाना चाहिये, खबरें प्रकाशित करना चाहिये, खोजी पत्रकारिता की जानी चाहिये अथवा नहीं?”

मूल बहस से हटते हुए एक महत्वपूर्ण तीसरा और अन्तिम सवाल यहाँ फ़िर उठाना चाहूंगा कि जब ऐसी कई जानकारियाँ मेरे जैसा एक सामान्य ब्लागर सिर्फ़ अपनी आँखे और कान खुले रखकर प्राप्त कर सकता है तो फ़िर पत्रकार क्यों नहीं कर सकते, उन्हें तो अपने मालिक का, कानून का कवच प्राप्त होता है, संसाधन और सम्पर्क हासिल होते हैं, और यदि यही संरक्षण ब्लागरों को भी मिलने लगे तो कैसा रहे?

बहरहाल अधिक लम्बा न खींचते हुए इन दोनों (बल्कि तीनों) मुद्दों पर पाठकों की बेबाक राय जानना चाहूंगा…
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चलते-चलते :- मैं सीरियसली सोच रहा हूं कि तिवारी जी ने इस्तीफ़े में “स्वास्थ्य कारणों” की वजह बताई, वह सही भी हो सकती है, क्योंकि वियाग्रा के ओवरडोज़ से स्वास्थ्य समस्याएं उत्पन्न हो ही जाती हैं… है ना? और तिवारी जी की गलती इतनी बड़ी भी नहीं है, उन्होंने तो कांग्रेस की स्थापना के 125 वर्ष का जश्न थोड़ा जल्दी मनाना शुरु कर दिया था, बस…

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28 Comments

  1. December 29, 2009 at 6:55 am

    मैने मुस्कुराते हुए पोस्ट पढ़ी. राज्यपाल का एक महत्त्वपूर्ण काम देश की एकता के प्रति सजग रहना है, कोई राज्य अलग तो नहीं हो जाना चाहता? मगर अब यह फिजूल है. वास्तव में केन्द्र के राजनीतिक एजेंट की अब जरूरत नहीं.

  2. December 29, 2009 at 7:13 am

    इस ठरकी बुढाऊ का तो क्या कहने ? पहले भी किसी ने इस पर असली-नकली बाप होने का दावा पेश कर रखा है, और अब …. , अगर ये जनाव इतने ही स्वच्छ चरित्र वाले सत्यवादी थे तो फिर कोर्ट से स्टिंग आपरेशन वाली वीडियो पर रोक लगाने की इन्हें जरुरत क्यों पडी ? दुसरे तौर पर यह भी कह सकते है कि इन्होने यह अपरोक्ष स्वीकार कर लिया कि वह वीडियो इन्ही का है ?

  3. December 29, 2009 at 7:15 am

    जल्द ही ब्लॉग-पुलिस द्वारा आपको पूरी सुरक्षा डी जायेगी !आशा है कि आगे भी इसी तरह आप नए खुलासे करते रहेंगे !आपकी सेवा में हमेशा तत्पर !!

  4. December 29, 2009 at 7:18 am

    ये सच है कि नारायण दत्त तिवारी का चरित्र बेदाग़ नहीं रहा है | इसके पहले भी कई आरोप लगे है ! लेकिन क्या हमें किसी की निजी जिन्दगी को निजी नहीं रहने देना चाहिए ? वैसे मै तो आप से झारखंड में भाजपा और जे एम् एम् गठबंधन पर लेख की उम्मीद कर रहा था !

  5. December 29, 2009 at 7:24 am

    स्कैंडल पर कोई आश्चर्य नहीं. इसे नारायण दत्त तिवारी का बैडलक कहिये कि वे धरा गए. और ना जाने कितने राजभवन, सर्किट हाऊस, रेस्ट हाऊस और फार्म हाउस होंगे. रही बात पत्रकारों की तोव्यावसायिक, राजनीतिक और अन्य सारी मजबूरियों के बावजूद मीडिया या पत्रकार का अपना काम बखूबी का रहे हैं, चाहे अखबार हों, न्यूज़ चैनल हों या फिर ब्लॉग पर लिखने वाले स्वतंत्र पत्रकार ही क्यूं ना हो. महंगाई से लेकर कोपनहेगन सम्मलेन और स्वाइन फ्लू से लेकर आतंकवाद तक मुझे नहीं लगता किसी भी मुद्दे या समाचार को मीडिया ने हलके-पतले में में लिया होगा.बस एक काम किया जा सकता है कि इन सारे नेताओं और सरकारी अधिकारीयों के कार्यालयों और रेस्ट हाऊसों/ सर्किट हाऊसों में कैमरे लगा दिए जाएँ ताकि ये सब काम से लगें और स्वाइन फ़्लू महंगाई और आतंकवाद जैसे मुद्दों को इनकी स्टिंग ओपरेशन वाली खबरें डाईल्यूट ना करें.

  6. December 29, 2009 at 8:23 am

    न जाने जनता कब जागेगी ???अभी तो देखना है इतावली और उसका भोदू और कितना बेडागर्क करते और करवाते है …

  7. December 29, 2009 at 8:31 am

    मैं सीरियसली सोच रहा हूं कि तिवारी जी ने इस्तीफ़े में “स्वास्थ्य कारणों” की वजह बताई, वह सही भी हो सकती है, क्योंकि वियाग्रा के ओवरडोज़ से स्वास्थ्य समस्याएं उत्पन्न हो ही जाती हैं… है ना? और तिवारी जी की गलती इतनी बड़ी भी नहीं है, उन्होंने तो कांग्रेस की स्थापना के 125 वर्ष का जश्न थोड़ा जल्दी मनाना शुरु कर दिया था, बस…हा हा हा हा …. बिलकुल सही आपने…. एक प्रसिद्ध फ़िल्म अभिनेता की माँ के भी एक पूर्व प्रधानमंत्री से सम्बन्ध काफ़ी चर्चित हैं। (कहा यह भी जाता है कि इसीलिए इंदिरा गाँधी उस प्रसिद्ध अभिनेता को अपना भाई बताती थीं…. जब कि वो राजीव गाँधी के साथ पैदा हुआ था….. यह भी सुनने में आया था…. कि वो प्रसिद्ध अभिनेता…. उस प्रधानमन्त्री की ही संतान है….. ऐसा मैंने पढ़ा था…. अब सच्चाई तो इश्वर ही जाने….. )नेताओं अथवा धर्मगुरुओं के प्रति भावुक होकर सोचने की बजाय हमें तर्कपूर्ण दृष्टि से सोचना चाहिये…। सहमत हूँ….

  8. December 29, 2009 at 9:23 am

    राज्यपालों के रोल को लेकर बहस होनी चाहिए. कुछ राज्यों में हाल ही में राज्यपाल ने राजनीतिक तौर पर जो भूमिका निभाई, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि राज्यपाल अपनी भूमिका को लेकर सचेत नहीं हैं. पंजाब के एक राज्यपाल का हेलीकाप्टर जब दुर्घटनाग्रस्त हुआ तो सुनते हैं उसमें से रूपये की बरसात हुई थी. गोवा में राज्यपाल जी ने जिस तरह से एक चुनी हुई लोकतान्त्रिक सरकार को गिराया उसे देखते हुए राज्यपालों के किरदार को इम्पार्सियल नहीं कहा जा सकता. सुनते हैं झारखण्ड के राज्यपाल ने तमाम वित्तीय घोटाले किये जो वहां के पूर्व मुख्यमंत्री द्वारा किये गए घोटाले से कम न थे. कहा जा सकता है कि राज्यपाल का पद शायद इसलिए भी बचाकर रखा गया है कि राजनीतिक रूप से चुक गए लोगों को चूसने के लिए लालीपॉप दिया जा सकते. ताकि तमाम असफल नेता अपने अंतिम राजनीतिक दिनों में राज्यपाल गति को प्राप्त हो सकें.मीडिया ने मसला उठाया. चाहे जैसे उठाया, मुझे इसमें कोई बुराई नहीं लगती. जैसा कि कीर्तिश जी ने कहा, तमाम पत्रकार न जाने कैसी मुश्किलें झेलते हुए अपना काम करते हैं. ऐसे में उनके रोल को सरे से खारिज नहीं किया जा सकता. सवाल केवल एक ही है. इस तरह की घटनाएं जब अखबारों की नियमित सुर्खियाँ बनाने लगेंगी तो क्या लोग उसे पढ़कर हज़म करने लगेंगे?आपने इतने सारे नाम गिनाये. पूर्व प्रधानमंत्री बड़े आदमी थे. आपने उनके उस कारनामे के बारे में नहीं बताया जिसके तहत उत्तर के एक राज्य के भूतपूर्व मुख्यमंत्री भी उनके ही सुपुत्र माने जाते हैं…..:-)

  9. December 29, 2009 at 9:58 am

    यह अच्छा है कि आपने ब्लॉग की फुल फीड देनी शुरू कर दी है! अन्यथा कहां पढ़ पाते इसे!

  10. December 29, 2009 at 10:46 am

    सुरेश जी, फिर आप गलत तरीके से पेश कर रहे हैं मामले को. प्यार बांटने को आप गलत ठहराते हैं. हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई सभी को एक समान दृष्टि से देखना कहां तक गलत है. पूरे देश में प्रेम की गंगा बहा रहे सज्जनों को आप इस निगाह से देखते हैं. 😉

  11. December 29, 2009 at 12:39 pm

    AAPNE APNI POST ME JIN TEEN BATON KA JIKRA KIYA USME SE PAHLE SE TO POORN SAHMAT HUN KI AB RAJYPAAL KE PAD KI KOI AAWASHYAKTA HI NAHI….YAH JANTA KE GAADHEE KAMAI KI SARASAR LOOT HAI…PAR DOOSRE AUR TEESRE PRASANG KO PADH LAG RAHA HAI KI APNE KO RAJNITIK ROOP SE KISI BHI HALAT ME JAGROOK NAHI KAH SAKTI…SACHMUCH KUCHH NAHI PATA KI YE MAHAN KAARISTANIYAN KINKI HAIN….

  12. December 29, 2009 at 2:01 pm

    बाबु यह पब्लिक है सब जानती है . जो है नाम वाला वही तो बदनाम है

  13. December 29, 2009 at 2:53 pm

    आप तो बड़े विघ्नसंतोषी जीव हैं, किसी का सुख भी आपसे नहीं देखा जाता। हद है, एक इन्सान को सही ढ़ंग से जीने भी नहीं देते आप। 🙂 मजेदार लेख, इस बार तो आपका लेख मुस्कुराते हुए पढ़ा

  14. December 29, 2009 at 3:29 pm

    @ Ashish Shrivastava – भाजपा ने जो झारखण्ड में किया है उसे हम सिर्फ़ राजनैतिक मजबूरी में किया गया शर्मनाक समझौता ही कह सकते हैं… भाजपा के सामने दो ही विकल्प थे – पहला ये कि कांग्रेस को शिबू के साथ सरकार बना लेने देते (तब धर्मनिरपेक्षता की जीत कहा जाता), या फ़िर खुद ही इस गन्दगी में हाथ धो लेते, अन्ततः दूसरा रास्ता अपनाया गया… क्योंकि यदि कांग्रेस और शिबू का समझौता न हो पाता तब भी कांग्रेस राष्ट्रपति(?) शासन लगवाकर अपनी गोटियाँ खेलती रहती…। जब मतदाता ही मूर्ख है तो ये गोवा, मेघालय, झारखण्ड जैसी नौटंकियां चलती ही रहेंगी…। बहरहाल आपने इस लेख के तीनों मुद्दों में से किसी पर भी अपनी राय नहीं रखी… ऐसा क्यों? ऊपर से आप उसे "निजी ज़िन्दगी" बता रहे हैं… मेरे भाई राजनैतिक जीवन में आने के बाद किसी का जीवन निजी नहीं रह जाता… कम से कम तीन-तीन महिलाओं के साथ पकड़ाने पर तो बिलकुल नहीं… 🙂

  15. December 29, 2009 at 3:32 pm

    फ़िलहाल अभी तक तीनों मुद्दों पर कीर्तीश जी तथा शिवकुमार जी के अलावा किसी की राय अथवा टिप्पणी प्राप्त नहीं हुई है, इसलिये अभी कुछ और कहना जल्दबाजी होगी…

  16. December 29, 2009 at 4:39 pm

    …आदरणीय सुरेश जी,यह रहे मुद्देवार मेरे विचार….पहला मुद्दा – क्या अब भी हमें राज्यपाल पद की आवश्यकता है?बिल्कुल नहीं, कोई जरूरत नहीं है, आखिर आज की तारीख में यह पद रिटायर नेताओं, सेना अधिकारियों, नौकरशाहों, न्यायमूर्तियों आदि आदि को रिटायर होने के बाद भी रोजगार देने के ही काम में तो आता है। रही बात राजनीतिक या संवैधानिक संकट होने पर दखल की, तो केन्द्रीय मंत्रिमंडल और कानून तथा गृह मंत्रालय यह काम कर सकते/ करते हैं ही।क्या भारतीय राजनीति में “टेब्लॉयड संस्कृति” का प्रादुर्भाव हो रहा है? यदि हो रहा है तो होना चाहिये अथवा नहीं?बिल्कुल होना चाहिये, जो भी शख्स सार्वजनिक जीवन की कमाई खा रहा हो, सार्वजनिक जीवन में रहने के कारण पद, सत्ता और धन का सुख भोग रहा हो, वह किसी अमर्यादित आचरण करते पकड़े जाने पर या अपनी चारित्रिक कमजोरी उजागर होने पर अपनी प्राइवेसी की दुहाई नहीं दे सकता । जो लोग ऐसा कहते हैं मैं उनसे पूछता हूँ कि सार्वजनिक जीवन के किसी भी आदमी में यदि कोई चारित्रिक कमजोरी है तो समाज में मौजूद भेड़िये उस कमजोरी का दोहन कर क्या उसकी निर्णय प्रक्रिया/निष्पक्षता को प्रभावित कर उस व्यक्ति के माध्यम से अनुचित फायदा नहीं उठायेंगे? इस तरह का फायदा उठाया गया है, उठाया जा रहा है और यदि ऐसे लोगों को नंगा नहीं किया गया तो भेड़िये सार्वजनिक जीवन के इन 'महापुरुषों' की चारित्रिक कमजोरी का दोहन अपने लाभ के लिये करते रहेंगे, और जनता मूर्ख बनती रहेगी।“ऐसे स्टिंग ऑपरेशन और नेताओं के चरित्र के सम्बन्ध में मीडिया को सबूत जुटाना चाहिये, खबरें प्रकाशित करना चाहिये, खोजी पत्रकारिता की जानी चाहिये अथवा नहीं?”अवश्य करनी चाहिये, और मीडिया यदि ऐसा करता है तो वह देशहित का वैसा ही काम करेगा जैसा कि फौज सीमा पर करती है… फौज सीमा पर देश के दुश्मनों से देश की रक्षा करती है… और मीडिया के ऐसा करने पर वह सत्ता के गलियारों में देश के दुश्मनों से देश की रक्षा का काम करेगा।तीसरा और अन्तिम सवाल यहाँ फ़िर उठाना चाहूंगा कि जब ऐसी कई जानकारियाँ मेरे जैसा एक सामान्य ब्लागर सिर्फ़ अपनी आँखे और कान खुले रखकर प्राप्त कर सकता है तो फ़िर पत्रकार क्यों नहीं कर सकते, उन्हें तो अपने मालिक का, कानून का कवच प्राप्त होता है, संसाधन और सम्पर्क हासिल होते हैं, और यदि यही संरक्षण ब्लागरों को भी मिलने लगे तो कैसा रहे?साहब बड़े दुख के साथ कहूंगा कि ये सारी जानकारियां पत्रकारों के पास हैं पर वे छापते नहीं क्योंकि:-* मालिक छापने नहीं देता।** उनके मन में श्रद्धा-भाव बहुत गहरा होता है।*** कुछ स्वयं भी इन जानकारियों के आधार पर संबंधित व्यक्ति से फेवर लेते हैं।**** एक बात और भी है, पत्रकार भी आदमी ही है, कई बार बीबी-बच्चों की सोच कर डर भी जाता है।***** कई वाकई में यह मानते हैं कि प्राईवेट लाईफ में मीडिया का कोई दखल नहीं होना चाहिये जबकि यह एक सरासर गलत स्टैंड है।आभार!

  17. Common Hindu said,

    December 29, 2009 at 5:00 pm

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  18. December 29, 2009 at 5:24 pm

    बाबा जी की लिबिडो पर्दे से बाहर आ गयी, वैसे इनके इस मिज़ाज़ के बारे चर्चाये तो हमेशा सुनता आया हूं, किन्तु उस वक्त तक पर्दा गिरा था।हमारे मुल्क में लोगों के रक्त में काव्य कला का आनुवंशिक रूप से प्रवाह जारी है, और वह हर वस्तु पर कुछ विचार करने से पहले मुग्ध हो जाते है, फ़िर क्यों न कोई महिला स्ट्रेचर पर पडई कराह रही हो……..

  19. December 29, 2009 at 6:03 pm

    बहुत उम्दा लेख …..अब आपके मुद्दों पर बात करते हैंहमें राज्यपाल पद की कोई आवश्यकता नहीं है……ये पद बस हमारी कमाई खाने के लिये है और हमारे ऊपर एक अनचाहा बोझ है….ये कम हो जायेगा तो वज़न कुछ हलका हो जाये शायद लेकिन ऐसे आसार है नहीं…====भारत में “टेब्लॉयड संस्कृति” की लगभग शुरुआत हो चुकी है….य़ु.पी में पिछ्ले कुछ वक्त से ये “टेब्लॉयड" अखबार शुरु हो गये हैं….ये हिन्दुस्तान और विदेश बडे-बडे सितारों सितारों के गरमा-गरम किस्से और तस्वीरे छ्पती हैं….हालकिं अभी नेताओं तक उनके हाथ नहीं पहुंचे है…अभी पेज भी सीमित है लेकिन शुरुआत तो हो चुकी है….======ऐसे स्टिंग आपरेशन की ज़रुरत है…======इस सवाल पर मैं पुरी तरह प्रवीण शाह से सहमत हूं……

  20. December 29, 2009 at 6:25 pm

    …आदरणीय सुरेश जी,अरे इसे तो भूल ही गया…नेताओं अथवा धर्मगुरुओं के प्रति भावुक होकर सोचने की बजाय हमें तर्कपूर्ण दृष्टि से सोचना चाहिये…। एक और छोटा सा उदाहरण – हाल ही में अपनी हरकतों की वजह से कुख्यात हुए एक “सिन्धी” धर्मगुरु तथा मुम्बई के एक प्रसिद्ध “सिन्धी” बिल्डर के बीच यदि धन के लेन-देन और बेनामी सौदों की ईमानदारी से जाँच कर ली जाये तो कई राज़ खुल जायेंगे… एक और प्रवचनकार द्वारा आयकर छिपाने के मामले खुल रहे हैं।ये धर्मगुरू नहीं अधर्मगुरु लोग हैं सरकारी जमीन हड़पना, काले पैसे को सफेद करना, राजनीतिक और बिजनेस डील करवाना और धर्म की आड़ में अपनी सात पुश्तों तक ऐश करने के जुगाड़ करना यही काम है इन अधर्मगुरुओं का, यह तो मानूंगा कि मीडिया ने इनकी असलियत दिखाने का थोड़ा बहुत प्रयास तो किया ही है पर कहा भी गया है कि Religion is the last resort of Scoundrel, धार्मिक भावनाओं का सहारा लेकर ये लोग साफ-साफ बच गये।वाह रे मेरे महान देश की धर्मांध जनता…

  21. December 29, 2009 at 6:37 pm

    प्रवीण शाह की टिप्पणी से सहमत।वैसे आप जो कह रहे हैं वह ठीक ही होगा क्यों कि आप जो कह रहे हैं। आपने तो कितने प्रधानमन्त्रियों की धोती ढीली कर दी। अब कहाँ से आएंगे अच्छॆ प्रधानमन्त्री?

  22. sahespuriya said,

    December 29, 2009 at 9:26 pm

    बहुत अच्छा लिखा, इक दो बातें रह गयी, कुछ ज़रा सुषमा स्वराज और अटल बिहारी के जवानी के क़िस्सो पर भी कुछ रोशनी डाल देते,जया जेटली और जॉर्ज फर्नाडीज़ पर भी कुछ हो जाए ,मायावती और काशीराम का प्रेम तो जगज़हिर है ही, और भी बहुत सी प्रेम कहानिया है कभी फ़ुर्सत मिली तो हम ही कुछ जलवा दिखाएँगे,

  23. RAJENDRA said,

    December 30, 2009 at 5:05 am

    sehaspuria ji kee baat se sahmat hun kucch aur bhi likhiyega isase janata ko apne priya netaon ka sahi roop to dikhaee de

  24. December 30, 2009 at 5:54 am

    मुद्दावार जवाब भेजेंगे

  25. Jyoti Verma said,

    December 30, 2009 at 6:21 am

    kya kare Reportor ko media ethics ke sath kaam karna padta hai. jo peeda appne dikhayi hai wo na jane itnk me hogi . par koi kuch kahta nahi. aapne jis bebak tareeke se sawal uthaye hai wo kabile tareef hai.

  26. flare said,

    December 30, 2009 at 6:25 am

    मेरी ये समझ में नहीं आता की ये सब तो आम बातें है | इनमें नया क्या है ? हम सिर्फ एक आम राय बना रहे है और कुछ नहीं |ND तिवारी मजे नहीं लेंगे तो और कोन लेगा हम लोग ? हमारा आपका मजा ये खबर ही तो है तो राज्यपाल की पद चले जाने पेख़तम हो जायेगा |

  27. cmpershad said,

    December 30, 2009 at 4:13 pm

    " क्या अब भी हमें राज्यपाल पद की आवश्यकता है? 'अब तो लगता है कि संसद की ज़रूरत नहीं है 🙂 संसद में उठा पटक, अपने लिए वेतन और सुविधाओं में वृद्धि, अपने रिश्तेदारों के लिए भी सुविधा …. और जनता जाए भाड़ में.. तो क्या ऐसे संसद की आवश्यकता है???????????

  28. sunil patel said,

    January 2, 2010 at 5:36 am

    हमें अंग्रजो के ज़माने के बने ६० साल पुराने नियमो को आज की परिस्थिति के हिसाब से बदलना होगा. हमारे वर्तमान नीतिओं मैं आज भी अंग्रजो की गुलामी साफ़ झलकती है.


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