>अरे , भूल गये पुन्यप्रसून जी कि …………………………….

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झारखण्ड की किस्मत किसने तय की है , वहां की जनता ने ही ना !  अरे , भूल गये पुन्यप्रसून जी कि ये वही प्रदेश है जहाँ की जनता ने घोटाले में लिप्त मुख्यमंत्री की बीबी को सर आँखों पर बिठाया था . यही वो प्रदेश है जो भावनाओं में बहकर शिबू सोरेन जैसों को अपनी बागडोर थमाता है . अब सांप को दूध पिलाओ तब भी जहर कम नहीं होता ! ये शिबू सोरेन की आदत है कभी यहाँ कभी वहां मुंह मारने की . लोग तो तब भी भाजपा के फैसले पर आश्चर्यचकित थे . तब विधायकों के   टूट जाने के भय से जिस स्संप को गले में डाला उसके जहर भरे दांत तोड़ने के उपाय भी करने चाहिए थे . वैसे मानते हैं कि आपकी रपट अलग होती है गरीब आदिवासियों से आपकी विशेष सहानुभूति है लेकिन भाई हम ऐसे लोगों से सहानुभूति नही रखते जो बार-बार एक ही गलती दुहराते हैं .झारखण्ड का मतदाता इतना सीधा-सादा भी नहीं है कि शिबू जैसों की असलियत ना पहचान सके , और फ़िर भी वोट देता है तो इसमें शिबू से ज्यादा इनकी गलती है ……………

>हिंसा ने ली एक और पत्रकार की जान

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एक और पत्रकार ने डयूटी के दौरान अपनी जान गंवा दी. इस बार हिंसा ने बलि ली है मलिक आरिफ की.जाने माने टी वी चैंनल Samaa TV के लिए गत दो वर्षों से काम कर रहा मलिक वास्तव में पिछले तीस वर्षों से सक्रिय पत्रकारिता में था. सन 1975 में उसने पी टी वी के लिए एक लाइट मैन के तौर पर काम शुरू किया पर जल्द ही तरक्की पा कर कैमरामैन बन गया. शयद ही कोई ऐसी घटना रही हो जब उसने अपने शौर्य का परिचय न दिया हो. कैमरे के ज़रिये सच को लोगों के सामने लाने के लिया अपनी जान तक जोखिम में डाल देना उसे एक खेल लगता था. सत्य की खोज का जनून उसमें अक्सर ही दिख जाता था. सन 1978 में जब पाकिस्तान में जनरल जिया उल हक़ की हकूमत ने कुछ मीडिया कर्मियों को भी अपने कहर का निशाना बनाया तो उस के खिलाफ खुल कर बोलने वालों में मलिक भी था. फिर जब 1994 में कंधार की घटना हुई तो कवरेज के लिए वहां भी गया जहां उस का अपहरण कर लिया गया और फिर कहीं जा कर दो महीने के बाद उसे छोड़ा गया. मलिक मूलत: सियालकोट का था पर इन दिनों वह परिवार सहित कोयटा में था. Samaa TV  के लिए पिछले दो बरसों से कार्य करते हुए उसने कई बार अपनी दलेरी, हिम्मत और जोश की झलक दिखाई. अब भी वह एक स्टोरी पर काम कर रहा था. सिविल अस्पताल कोयटा में हुए एक धमाके ने इस जांबाज़ कैमरा मैन को हम से हमेशां हमेशां के लिए छीन लिया.इस मौत के बाद सिंध असेम्बली की कवरेज कर रहे पत्रकारों ने अपने रोष का प्रदर्शन किया और एक बार फिर यह मांग उठाई कि पत्रकारों कि सुरक्षा सुनिश्चित की जाये. पत्रकारों ने काले बिल्ले भी लगाये. इसी तरह खैबर यूनियन आफ जर्नलिस्ट ने भी इस मुद्दे को उठाया और शोक संतप्त परिवार से अपनी संवेदना व्यक्त की. इस्लामाबाद से जरनलिस्ट फार इंटरनैशनल पीस की तरफ से इफ्तिखार चौधरी ने भी गहरे दुःख का इज़हार किया.  –रैक्टर कथूरिया 

>देखिये नवभारत के संपादक की पसंद !

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संपादक की पसंद
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Monikangana Dutta
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Snow-white babes

 
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Hot and bold…..These are the words that comes to our mind by luking the babe in bikini. (Peter Rollans – Australian Swimsuit Edition)
28 Oct, 2009


हैरान क्यों हैं ? ये है नवभारत टाइम्स की वेबसाइट …. जरा बायीं ओर के एक-एक कॉलम को गौर से देखिये ….. फोटू देख रहे हैं ! अरे साहब जरा कॉलम का नाम तो देखिये …… और नवभारत के संपादक की पसंद भी ! काफी ऊँचे दर्जे की पसंद है इनकी ! क्यों ? 



>बस्तर से आई आवाज

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राजीव रंजन प्रसाद (rajeevnhpc102@gmail.com) बस्तर

नक्सलवाद को एक ऑर्गेनाईज्ड क्राईम की तरह से ही देखा जाना चाहिये। आंतरिक आवाजे ऐसी नहीं होती जिसका दावा नक्सलवाद के समर्थक पत्रकार और प्रचारक बुद्दिजीवी करते हैं। बुनियाद में देखें तो आप बस्तर में “आन्दोलन” के नाम पर “मनमानी” करते सुकारू और बुदरू को नहीं पायेंगे “राव” और “सेन” को पायेंगे। यह एक एंक्रोचमेंट है “सेफ प्लेस” पर। बस्तर के आदिवासियों को माओवाद का पाठ पढाते ये लोग घातक हैं वहाँ कि संस्कृति और उनकी अपनी स्वाभाविक व्यवस्था के लिये। हालात नक्सलियों द्वारा आतंक फैला कर पैदा किये गये हैं जिन्हे आदिमं के हर घर से लडने के लिये एक आदिम जवान चाहिये होता है…उसकी मर्जी हो तब भी और नहीं हो तब भी।

नक्सली आतंकवादियों के मानवाधिकार पर केवल इतना ही कहूँगा कि उनके तो मानवाधिकार हैं लेकिन रोज बारूदी सुरंगों के विस्फोट में मारे जा रहे जवान और हजारों निरीह आदिम हैं उनके अधिकारों की बात करते समय हमारे माननीय पत्रकारों को क्या साँप सूंघता है? जो बस्तर का इतिहास जानते हैं उन्हे पता है कि यहाँ का आदिम दस से अधिक बार (भूमकाल) स्वत: अपने अधिकारों के लिये खडा हुआ और उसने न केवल अपने “राजतंत्र” बल्कि “अंग्रेजों” की भी ईंट से ईंट बजा कर अपने अधिकार हासिल किये। (हो सकता है यह सलवा जुडुम भी एसा ही एक आन्दोलन हो जो उनका “स्वत: स्फूर्त” हो क्योंकि इसके पैरोकार आन्ध्र या बंगाल के भगोडे अपराधी नहीं हैं कमसकम वहीं के आदिम और आदिवासी नेता हैं) उसे अपनी लडाई के लिये किसी माओवादी संगठन की बैसाखी नहीं चाहिये।

असल में चश्मा बदल कर देखने की आवश्यकता है। बैसाखी आदिमो को नहीं दी गयी है बस्तर तो बिल है जिसमे छुपे माओवादी अपनी कायरता को लफ्फाजी से छुपाते रहे हैं….यह जान लीजिये कि वीरप्पन भी जंगलों में हुआ, फूलन भी बीहडों में हुई और नक्सल भी जंगलों में मिलेंगे क्योंकि ये उनके सहज पनाहगाह हैं। माओवादियों को जनसमर्थन होता तो ये मैदानों में भी पाये जाते – सहज स्वीकार्य? वहाँ क्या तथाकथित शोषण नहीं समाजवाद है?

यह सच है कि माओवादी विचारों के जरिये ही चीन की सत्ता बची है और वह दुनिया का ताकतवर देश है लेकिन एसा देश जिसके भीतर मानवाधिकारों की क्या स्थिति है यह भी दुनिया जानती है (माफ कीजियेगा कुछ पत्रकार और कुछ बुद्धिजीवी नहीं जानते)। उसी चीन नें तिब्बत का जो लाल सलाम किया है उस पर तो किसी माओवाद समर्थक पत्रकार और बुद्धिजीवी को अब आपत्ति नहीं होगी? और नेपाल पर इतराने जैसी भी कोई बात नजर नहीं आती…

>बाज़ार के बिस्तर पर स्खलित ज्ञान कभी क्रांति का जनक नहीं हो सकता.: जनोक्ति

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आज एक दुनिया देखी हमने, जहां अभिव्यक्ति विकृति की संस्कृति में ढल रही है .हिंदी समाज की विडंबना हीं कहिये , सामाजिक सरोकारों पर मूत्र त्याग कर व्यक्तिगत स्वार्थों में लिप्त हो लेखन  कर्म को वेश्यावृत्ति से भी बदतर बना दिया गया है .अंतरजाल में शीघ्रता से फ़ैल रहे हिंदी पाठक कुंठित दिखते हैं . मौजूदा समय में धार्मिक कुप्रचार ,निजी दोषारोपण,अमर्यादित भाषा ,तथ्य और तर्क विहीन लेखन यत्र तत्र बिखरे पड़े हैं .

जब विचारों को किसी वाद या विचारधारा का प्रश्रय लेकर  ही समाज में स्वीकृति  मिलने का प्रचलन बन जाए तब  व्यक्तित्व का निर्माण संभव नही. आज यही कारण है कि  भारत या तमाम विश्व में पिछले ५० वर्षो में कोई अनुकरणीय और प्रभावी हस्ताक्षर का उद्भव नही हुआ. वाद के तमगे  में जकड़ी मानसिकता अपना स्वतंत्र विकास नही कर सकती और न ही सर्वसमाज का हित सोच सकती है.

 मानवीय प्रकृति में मनुष्य की संवेदना तभी जागृत होती है जब पीड़ा का अहसास प्रत्यक्ष रूप से हो.जीभ को दाँतों के होने का अहसास तभी बेहतर होता है ,जब दातो में दर्द हो. शायद यही वजह रही कि  औपनिवेशिक समाज ने बड़े विचारको और क्रांति को जन्म दिया. आज के नियति और नीति निर्धारक इस बात को बखूबी समझते है . अब किसी भी पीड़ा का भान समाज को नही होने दिया जाता ताकि क्रांति न उपजे. क्रांति के बीज को परखने और दिग्भ्रमित करने के उद्देश्य से सता प्रायोजित धरना प्रदर्शन का छद्म  खेल द्वारा हमारे आक्रोश को खोखले नारों की गूंज में दबा देने की साजिश कारगर साबित हुई है.  कई जंतर मंतर जैसे कई सेफ्टी-वाल्व को स्थापित कर बुद्धिजीवी वर्ग जो क्रांति के बीज समाज में बोया करते थे, उनको बाँझ बना दिया गया है.इतिहास साक्षी है कि कलम और क्रांति में चोली दामन का साथ है. अब कलम को बाज़ार का सारथि बना दिया गया. ऐसे में किसी क्रांति की भूमिका कौन लिखेगा? तथाकथित  कलम के वाहक बाज़ार की महफिलों में राते रंगीन कर रहे है.बाज़ार के बिस्तर पर स्खलित  ज्ञान कभी क्रांति का जनक नही हो सकता.

तो अब जबकि  बाज़ार के चंगुल से मुक्त अभिव्यक्ति का मन्च ब्लागिंग के रूप में सामानांतर विकल्प बन कर उभरा है तो हमारी जिम्मेदारी है कि छोटी लकीरों के बरक्स कई बड़ी रेखाए खिची जाएं. बाज़ारमुक्त और वादमुक्त हो समाजहित से राष्ट्रहित कि ओर प्रवाहमान लेखन समय की मांग है.

>टेलीविजन का बढ़ता दायरा और रियल्टी शो

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टेलीविजन की लोकप्रियता का दायरा बढ़ाने में धारावाहिकों का अहम् योगदान रहा है । चाहे ‘महाभारत’ हो या ‘क्योंकि सास भी कभी बहु थी ‘ इन टीवी सीरियल्स ने न केवल सफलता पाई बल्कि सम्बंधित चैनल को भी एक नई ऊंचाई दी । गौरतलब है किटीवी के दर्शकों में सबसे बड़ी तादाद महिलाओं और बच्चों की रही है । यही वजह रही है कि अब तक ऐतिहासिक , पारिवारिक पृष्ठभूमि को लेकर ज्यादातर धारावाहिकों का निर्माण किया जाता रहा है । समय तेजी से बदला है और बदलते दौर में दर्शकों का मिजाज भी , तो भला धारावाहिक के विषय-वस्तु पर इस बदलाव का असर कैसे ना हो ? इसी बदलाव ने ‘रिअलिटी शो ‘नाम की एक नई विधा को जन्म दिया है । वैसे तो पश्चिम में इसका चलन बहुत पहले से रहा है फ़िर भी भारत में इसे नया ही कहा जाएगा । अमेरिका के लोकप्रिय रियल्टी शो ‘बिग ब्रदर’ की नक़ल करते हुए ‘बिग बॉस ‘ नाम से रियल्टी शो बनाया गया था जो दर्शकों के बीच खासा लोकप्रिय रहा । इसके बाद तो जैसे रियल्टी शो की बाढ़ सी आ गयी । नाच -गाने , स्टंट आदि को लेकर भी ढेरों कार्यक्रमों को रियल्टी के नाम पर बाज़ार में उतारा जा रहा है । जैसा कि नाम सुनकर लगता है ये रियल्टी शो सच्चाई दिखाते होंगे लेकिन होता उसका उल्टा है । रियल्टी /वास्तविकता के नाम पर जो कुछ भी परोसा जाता है उसमें हर जगह स्क्रिप्ट पर आधारित बनाबटीपन हीं नज़र आता है । साथ हीं इसमें जानबुझ कर विवाद खड़ा किया जाता है । वास्तव में इस तरह के कार्यक्रम महज टीआरपी के लिए भोंडेपन का प्रदर्शन करते हैं । उदाहरण के तौर पर ‘सच का सामना ‘ और ‘राखी का स्वयंवर ‘ अपनी प्रस्तुति के मामले में न केवल कृत्रिम हैं बल्कि अश्लील भी हैं । एमटीवी ने तो सारी सीमाएं तोड़ कर रख दी है । ‘roadies’ और ‘splittsvilla’ जैसे कार्यक्रमों में धड़ल्ले से गालियों और भद्दे शब्दों का खुलकर प्रयोग किया जा रहा है। बात यही ख़त्म नहीं होती हार -जीत के खेल में गली-गलौज से आगे बढ़कर मार-पीट के सीन देखे जा सकते हैं । इस तरह के टीवी कार्यक्रमों का सबसे बुरा असर बच्चों और किशोरों पर पड़ता है । महज लाभ और लोकप्रियता के लिए ऐसे हथकंडे अपनाना टीवी जैसे संचार माध्यमों के भविष्य के लिए और समाज के लिए भी घातक हैं ।

:- मेराज फातिमा (लेखिका जामिया में मीडिया की छात्रा हैं )

>प्रभाष जोशी का सेकुलरवाद से गद्दारी क्यों ? वामपंथियों का सवाल

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भागो, भागो, भागो ….. अब तो पूरी जमात भेड़ियों की तरह टूट पड़ी है। अंतरजाल पर वामपंथी ताने-बाने का हरेक झंडाबरदार प्रभाष जोशी के पीछे लपक पड़े हैं । रविवार में एक आलेख क्या छपा इनकी नींद उड़ गई ! ब्लॉग से लेकर वेबसाइट तक जोशी के ब्राह्मण हो जाने की सनसनी फ़ैल गयी है । पता नहीं अब तक किसी टीवी वाले ने प्रभाष जी को चाय पर बुलाया है या नहीं ? चाय पर माने इन्टरव्यू के लिए । अरे , आख़िर माजरा क्या है ? आजीवन ब्राह्मणवाद ,मनुवाद ,हिन्दुवाद से दूर वामपंथ अथवा वामपंथ के इर्द-गिर्द अपनी लेखनी चलाने वाले लेखक -पत्रकार लोग बुढापे में अपने पंथ से गद्दारी क्यों कर बैठते हैं ? पाठकों , यह सवाल मेरा नहीं बल्कि वामपंथ के युवा लेखकों के दिल की टीस है ! उनके अनुसार तो प्रभाष जी सठिया गये हैं (एक महान पत्रकार के वेबसाइट का लिंक दिए हैं ) वाकई , सवाल तो लाखों का नहीं अरबों -खरबों का है ! मौका और फुर्सत हो तो किसी सेकुलर (छद्म वामपंथी) खोजी पत्रकार को मामले की तह में जाना चाहिए । कोई न मिल रहा हो तो तरुण तेजपाल को हीं लगा दिया जाए । कुछ न कुछ तो ढूंढ़ निकालेंगे ! साहब , मैं फालतू की बात नहीं कर रहा हूँ । यह आज तक यक्ष प्रश्न बना हुआ है । निर्मल वर्मा , कमलेश्वर , राजेंद्र यादव, उदयप्रकाश ,प्रभाष जोशी सरीखे महान लेखकों की एक लम्बी सूची है जिनको दक्षिणपंथी , हिंदूवादी ,संघप्रेमी, आदि अलंकरणों से विभूषित किया जा चुका है इनमें से प्रत्येक लेखक को लेकर उठे बबाल का ज्ञान आपक सभी को होगा हीं । अभी ताजातरीन विवाद में उदयप्रकाश को योगी आदित्यनाथ के साथ एक मंच पर खड़े होने के लिए लताड़ा गया था और अब प्रभाष जी के साक्षात्कार को लेकर चिल्लमचिल्ली मची हुई है । अभी महीने भर पहले पत्रकारीय मूल्यों में गिरावट और पैकेज वाले ख़बरों के विरुद्ध जोशी जी की मुहीम से सभी खुश थे । जगह-जगह सेमिनार / गोष्ठी / कार्यशाला लगाई जा रही थी । इन तमाम कार्यक्रमों में हिन्दी पत्रकारिता के भीष्म आदर्श पत्रकार होने के गुर सिखा रहे थे ।देश भर में इन्हीं की धूम मची थी । आज अचानक एक साक्षात्कार ने इन्हें क्या से क्या बना दिया ? लोग तुम-ताम पर उतर आए हैं । आज कल ग्रहदशा कुछ ठीक नहीं चल रही है । कई बड़े लोगों की गाड़ी पटरी पर से उतरती हुई दिख रही है ।
बहरहाल ,प्रभाष जोशी के पिछले लेखन कर्म में कहीं भी पारदर्शिता का अभाव नहीं रहा है और मेरे अनुसार तो वो यहाँ भी पारदर्शी हैं । परन्तु कुछ लोगों को आभासी प्रतिबिम्बों को देख-देख कर जीने की आदत होती है । ऐसे लोगों को जोशी कुछ और नज़र आते हैं । वैसे वामपंथियों के लिए दुखी होकर चिल्लाने के अलावा एक खुश खबरी भी है । जसवंत सिंह भी अचानक पाला बदल कर सेकुलर होने की राह पर चल पड़े और आखिरकार उन्हें शहादत देते हुए भाजपा की सदस्यता गंवानी पड़ गयी । तो भाई लोग खम्भा नोचना छोड़ कर थोडा खुश हो लें क्योंकि अपने सुख से ज्यादा इंसान को दूसरों के दुःख से प्रसन्नता होती है !

>प्रभाष जोशी को संघप्रेमी ,ब्राह्मणवादी और मनुवादी कहना टुच्चापन

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प्रभाष जोशी वर्तमान हिन्दी पत्रकारिता के सर्वमान्य हस्ताक्षर हैं । जनसत्ता में उनको करीब ५ सालों से पढ़ रहा हूँ । कभी भी जोशी जी के आलेखों में किसी वाद की छाया प्रतिबिंबित नहीं देखी है । सुनते हैं कि जनसत्ता वामपंथी विचारधारा का समाचार पत्र है परन्तु आज तक इस पर कोई निर्णय नहीं कर पाया हूँ । किसी अखबार के अथवा पत्रकार के एकाध आलेखों / ख़बरों से उसके विचार /सोच/ मानसिकता को चिन्हित कर पाना मुझ जैसे अनाड़ी के लिए मुश्किल काम है । हाँ , हमारे कुछ वामपंथी मित्र इस मामले में बड़े चतुर और पारखी हैं ! आज हीं एक सज्जन ने ब्लॉग पर रविवार में छपे प्रभाष जी के साक्षात्कार को उधृत करते हुए उन्हें संघ -प्रेमी करार दे दिया । उक्त वामपंथी मित्र ने अपनी पोस्ट में जो शीर्षक दिया है जरा उसे भी देखिये “प्रभाष जोशी! शर्म तुमको मगर नहीं आती” ।इस तरह की भाषा से इनका टुच्चापन और अधिकाधिक पाठक खिंच लाने की मंशा साफ़ हो जाती है । जोशी के आलेख केसन्दर्भों को जाने -बुझे बगैर ऐसी टिप्पणी उनके कच्चे लेखक होने की बात को पुष्ट करता है । पोस्ट के आरम्भ में जोशी जी को पुरुषवादी , ब्राह्मणवादी, मनुवादी, संघप्रेमी आदि संबोधनों (जो आज कल बौद्धिक जगत में गाली के रूप में प्रयुक्त होते हैं ) से अलंकृत कर नीचे उक्त साक्षात्कार को चेपा गया है । प्रभाष जोशी के वक्तव्यों को बिन्दुवार लेते हुए तार्किक खंडन करने के बजाय खाली गाल बजाने का काम तो इन महाज्ञानी लोगों के ही वश में है।अगर इन्होने जरा भी प्रभाष जोशी को पढ़ा होता तो ऐसा अनर्गल प्रलाप कदाचित नहीं करते । गुजरात दंगा , बाबरी मस्जिद, शाहबानों प्रकरण,सिख दंगा हो अथवा नंदीग्राम का मामला हर जगह जोशी जी ने निष्पक्ष रुख अपनाए रखा । ऐसे बेदाग़ छवि वाले पत्रकार को अपनी पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर किसी खास वाद का पैरोकार बताना ब्लॉगर के मानसिक दिवालियेपन की निशानी है । आप भी पूरे प्रकरण को यहाँ देखिये और इस बेतुकी बहस में सर खपाईये । समय हो तो जरुर बताइए क्या प्रभाष जोशी संघी और ब्राह्मणवादी हैं ?

>अति सर्वत्र वर्जयेत -गुलवर्गा की घटना और मीडिया .

>हर वस्तु की अति बुरी होती हैये मीडिया वाले कब समझेंगे कि ,किसी बात को हज़ार बार रिपीट करने पर अब वह न तो सच बनती है,न लोगों की अधिक समझ में आजाती है। बल्कि उलटा ही होता है, बार-बार वही घटना,टी वी पर दिखाते -सुनाते रहने पर व्यक्ति-जनता उसे रोज -रोज की सामान्य चख-चख समझ कर ,इग्नोर करने लगती है तथा समाचार व उसके श्रोत की विश्वसनीयता घटने लगती है। इस ग़लत फहमी को दूर कर मीडिया सिर्फ़ एक बार ही ख़बर दिखाए और पुनः उसका परिणाम लेकर आए तो अधिक सटीक बात बने।
गुलबर्गा की घटना को चेनलों ने बही फ़िल्म बार-बार दिखाई ,बच्चों का रोना-धोना आदि दिखाकर सनसनी उत्पन्न करके रेटिंग बढ़ाने की तथा हर भारतीय बात को ग़लत ठहराने की मंसा साफ़ नज़र आयी। वास्तविकता का कोई मंज़र नज़र नही आया। न कोई परिणाम दिखाया ,न कोई फोलोअप ,कि बच्चों में कोई ठीक हुआ या नहीं ,किसी को कोई हानि हुई या नहीं ,माँ -बाप से कुछ नहीं पूछा गया कि किसकी सलाह पर वे आए ,क्या उन्हें अपने बच्चों पर दया नहीं आरही ,क्यों ? क्या इस बात से पहले बच्चे ठीक हुए हैं या नहीं ?उन्हें सत्य थोड़े ही जानना है बस सनसनी
बच्चों की क्या है वे तो सुई लगाने के नाम से,आप्रेसन ,हस्पताल ,डाक्टर ,स्कूल -पढाई सभी के नाम से रोते हैं ,क्या कठोर होकर निर्णय नहीं लेते,उनके भविष्य के लिए क्या ये बच्चों पर अत्याचार है ?ये माँ-बाप भी तो किसी सद्-मंसा से बच्चों के कष्ट देखपारहे हैं।
यूनीसेफ वालों को क्या पता कि यह सब बच्चों की सेहत के लिए खराव है ,क्या उनहोंने कोई प्रयोग करके देखा है?जो भारत में होरहा है वह खराब है?? क्या यह नहीं होसकता कि मंद-बुद्धि व विकलांग बच्चों के चिल्लाते रहने से मस्तिष्क एक्टिव होजाता हो व अन्दर की गरमी,नमी से अंगों में रक्त संचार ।विशेषग्यज्योतिषियों ,वैद्यों ,मनो – वैज्ञानिकों ,चिकित्सकों आदि के व्याख्यात्मक बयान प्रस्तुत करें सत्य जानने के लिए ,छानने के लिए बात की तह में जाना चाहिए नाकि अन्धविश्वासी की तरह विश्वास कर लिया और लगे कथा कहने।
मीडिया को चाहिए कि वे घटना का पीछा करें व सचाई जानें व दिखाएँ । सच्चाई जानने से ही अंधविश्वास मिटेगा ,कथा सुनाने से नहीं।

>ये क्या गोरख धन्धा है, समाचार पत्रों में–कहनी -कथनी फ़र्क.

>यूं तो समाचार पत्र या मीडिया -तमाम समाज़िक पहल व कार्यों के कारण जाग्रूकता का चौथा स्तम्भ होने का दम भरता है,परन्तु क्या आपको ये विग्यापन -जो एक ही समाचार पत्र के एक ही दिन के हैं- देखकर ऐसा लगता है?




कि -सेक्स, रुपया-लाटरी, जुआ,कन्डोम, केन्सर-कारक गुटखा, विशिष्ट भूमिका वाले पिता का चयन जैसे विग्यापनों से यह कार्य सम्भव हो रहा है? यह कथनी -करनी का फ़र्क हमें कहां लेजारहा है? बच्चे, किशोर,युवा व अनगढ लोग तो यह पढ्कर यही समझेंगे, मानेंगे कि यह तो अच्छी बात ही होगी जो खुले आम ,पत्र्कार विद्वान महोदय परोस रहे हैं। क्या यह सब सिर्फ़ पैसे व धन्धे के लिये नहीं है ?अखवार चलाने के लिये? जब धन्धा ही मुख्य बात है तो फ़िर–पैसे के लिये कपडे उतारतीं हीरोइनें, बलात्कार करते हीरो, वैश्याव्रत्ति करतीं औरतेंव दलाल, जुआ खेलते ,जुआघर चलाते लोग , देश के गुप्त दस्तावेज़ बेचते देश द्रोही ,भीख मांगते लोगों का बुरा क्यों माना जाता है ?

वह भी तो उनका धन्धा ही है। उनमें–इनमें क्या फ़र्क?

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